यह धर्म नगरी बनारस पवित्र नदी गंगा के किनारे पर बसा हुआ है। इस धर्म नगरी के दर्शन हेतु देश-विदेश से दर्शनार्थी आते रहे हैं और अपनी पहचान बनाने के लिए पवित्र नदी गंगा के किनारे अपने नाम से घाट बनवाते रहे | जब इन घाटों की संख्या अस्सी हो गई तब इनको अस्सी घाट के नाम से जाना जाने लगा । गंगा नदी में यहीं पर एक अस्सी नदी (शाही नाला) (संत रविदास समारक पार्क) के पास से बहता है व शहर की दूसरी तरफ एक वरुणा नदी है।
यह शहर वरुणा और अस्सी के बीच में स्थित था इसलिए इसका नाम वाराणसी पड़ा तथा इसकी परिक्रमा को पंचकोशी परिक्रमा कहते हैं। जब गंगा नदी में पानी अधिक आता था तो अस्सी नदी से पानी की एक लहर शहर की गंदगी को साथ बहाकर लाते हुए शहर की तरफ चलती थी तो वह लहर उस कूड़े करकट को यहाँ मण्डूर नगरी के पास ढेर के रुप में छोड़ कर जाती थी | इस कूड़े के ढेर को डिंग का नाम दिया गया तथा उस जमा पानी का नाम अब लहरतारा तालाब है जो आते हुए मन्दिर के रास्ते में पड़ता है तथा वह पानी की लहर जहाँ-जहाँ से गुजरती थी उस जगह को लहरतारा के नाम से जाना जाता है। उस गंदगी भरे निचले स्थान पर ही हम लोगों को बसने दिया जाता था | अतः इस बस्ती का नाम नीच बस्ती था । नीच बस्ती के नाम को समय के साथ नई बस्ती में तब्दील किया गया। जिसने इस बस्ती को बसाया उस व्यक्ति की निशानी को डीह के नाम से जाना जाता है। तब से इस बस्ती का नाम मण्ड्वाडीह है।इसलिए अति मलिन बस्ती में रहने व शूद्र जाति का दर्जा होने के कारण श्री गुरु रविदास जी ने कहा है
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‘कि मेरी जाति ओछी पाति ओछी ओछा जन्म हमारा”
अर्थात- हम इस धरती पर सबसे नीच माने गए हैं परन्तु हमारा चरित्र
नीच नहीं है। चरित्र कर्म से बनता है कहने का अर्थ है कि कर्म
ही उत्तम है जाति उत्तम नहीं। क्योंकि कोई मनुष्य किसी जाति
में जन्म लेने से छोटा या बड़ा नहीं बनता है उसके कर्म
ही उसे छोटा या बड़ा बनाते हैं।
इसी बस्ती में कोई व्यक्ति आता-जाता नहीं था। परन्तु जब कोई व्यक्ति इस बस्ती में आता था, तो बस्ती के बाहर उसको रास्ता बताने के लिए एक गन्दा सा ढोल रखा रहता था, तब एक बार उस ढोल को बजाया जाता था जिससे मंडूर निवासी अपनी अपनी झोंपडीयों में छिप जाया करते थे क्योंकि उन लोगों का अन्य जाति के लोगों को देखना व सुनना मना था। उल्लंघना करने पर उनको पीटा जाता था। समाज की यही स्थिति समस्त देश में भी थी क्योंकि इन लोगों को गाँव में बसने ना दिया जाता था। गाँव से दूर दक्षिण दिशा में इन लोगों का वास होता था। ताकि इनकी बस्ती की हवा भी किसी को छू ना सके।